Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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इसमें संदेह नहीं कि वह विलास की सामग्रियों पर जान देती थी, लेकिन इन सामग्रियों की प्राप्ति के लिए जिस बेहयाई की जरूरत थी, वह उसके लिए असह्य थी और कभी-कभी एकांत में वह अपनी वर्तमान दशा की पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी। वहां यह टीमटाम न थी, किंतु वह अपने समाज में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। वह अपनी पड़ोसिनों के सामने अपनी कुलीनता पर गर्व कर सकती थी, अपनी धार्मिकता और भक्तिभाव का रोब जमा सकती थी। किसी के सम्मुख उसका सिर नीचा नहीं होता था। लेकिन यहां उसके सगर्व हृदय को पग-पग पर लज्जा से मुंह छिपाना पड़ता था। उसे ज्ञात होता था कि मैं किसी कुलटा के सामने भी सिर उठाने योग्य नहीं हूं। जो निरादर और अपमान उसे उस समय सहने पड़ते थे, उनकी अपेक्षा यहां की प्रेमवार्ता और आंखों की सनकियां अधिक दुःखजनक प्रतीत होती थीं और उसके भावपूर्ण हृंदय पर कुठाराघात कर देती थीं। तब उसका व्यथित हृदय पद्मसिंह पर दांत पीसकर रह जाता था। यदि उस निर्दय मनुष्य ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती, तो मुझे इस पापकुंड में कूंदने का साहस न होता। अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ा रहने देते, तो कदाचित् मैं अपने घर लौट जाती। अथवा वह (गजाधर) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-झगड़कर जीवन के दिन काटने-कटने लगते। इसलिए उसने विट्ठलदास से पद्मसिंह को अपने साथ लाने की शर्त की थी।

लेकिन आज जब विट्ठलदास से उसे ज्ञात हुआ कि शर्माजी मुझे उबारने के लिए कितने उत्सुक हो रहे हैं और कितनी उदारता के साथ मेरी सहायता करने पर तैयार हैं, तो उनके प्रति घृणा के स्थान पर उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। वह बड़े सज्जन पुरुष हैं। मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूं। उन्होंने मुझ पर दया की है। मैं जाकर उनके पैरों पर गिर पडूंगी और कहूंगी कि आपने इस अभागिन का उपकार किया है, उसका बदला आपको ईश्वर देंगे। यह कंगन भी लौटा दूं, जिससे उन्हें यह संतोष हो जाए कि जिस आत्मा की मैंने रक्षा की है, वह सर्वथा उसके अयोग्य नहीं है। बस, वहां से आकर इस पाप के मायाजाल से निकल भागूं।

लेकिन सदन को कैसे भुलाऊंगी?

अपने मन की इस चंचलता पर वह झुंझला पड़ी क्या उस पापमय प्रेम के लिए जीवन-सुधारक इस दुर्लभ अवसर को हाथ से जाने दूं? चार दिन की चांदनी के लिए सदैव पाप के अंधकार में पड़ी रहूं? अपने हाथ से एक सरल हृदय युवक का जीवन नष्ट करूं? जिस सज्जन पुरुष ने मेरे साथ वह सद्व्यवहार किया है, उन्हीं के साथ यह छल! यह कपट! नहीं, मैं दूषित प्रेम को हृदय से निकाल दूंगी। सदन को भूल जाऊंगी। उससे कहूंगी, तुम भी मुझे इस मायाजाल से निकलने दो।

आह! मुझे कैसा धोखा हुआ! यह स्थान दूर से कितना सुहावना, कितना मनोरम, कितना सुखमय दिखाई देता था। मैंने इसे फूलों का बाग समझा, लेकिन है क्या? एक भयंकर वन, मांसाहरी पशुओं और विषैले कीड़ों से भरा हुआ!

यह नदी दूर से चांद की चादर-सी बिछी हुई कैसी भली मालूम होती थी। पर अंदर क्या मिलता है? बड़े-बड़े विकराल जल-जंतुओं का क्रीड़ा-स्थल! सुमन इसी प्रकार विचार-सागर में मग्न थी। उसे यह उत्कंठा हो रही थी कि किसी तरह सवेरा हो जाए और विट्ठलदास आ जाए, किसी तरह यहां से निकल भागूं। आधी रात बीत गई और उसे नींद न आई। धीरे-धीरे उसे शंका होने लगी कि कहीं सबेरे विट्ठलदास न आए तो क्या होगा? क्या मुझे फिर यहां प्रातःकाल से संध्या तक मीरासियों और धाड़ियों की चापलूसियां सुननी पड़ेंगी। फिर पाप-रजोलिप्त पुतलियों का आदर-सम्मान करना पड़ेगा? सुमन को यहां रहते हुए अभी छह मास भी पूरे न हुए थे, लेकिन इतने ही दिनों में उसे यहां का पूरा अनुभव हो गया था। उसके यहां सारे दिन मीरासियों का जमघट रहता था। वह अपने दुराचार, छल और क्षुद्रता की कथाएं बड़े गर्व से कहते। उनमें कोई चतुर गिरहकट था, कोई धूर्त ताश खेलनेवाले, कोई टपके की विद्या में निपुण, कोई दीवार फांदने के फन का उस्ताद और सबके-सब अपने दुस्साहस और दुर्बलता पर फूले हुए। पड़ोस की रमणियां भी नित्य आती थीं, रंगी, बनी-ठनीं, दीपक के समान जगमगाती हुईं, किंतु यह स्वर्ण-पात्र थे, हलाहल से भरे हुए पात्र– उनमें कितना छिछोरापन था! कितना छल! कितनी कुवासना! वह अपनी निर्लज्जता और कुकर्मों के वृत्तांत कितने मजे में ले-लेकर कहतीं। उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था। सदैव ठगने की, छलने की धुन, मन सदैव पाप-तृष्णा में लिप्त।

शहर में जो लोग सच्चरित्र थे, उन्हें यहां खूब गालियां दी जाती थीं, उनकी खूब हंसी उड़ाई जाती थी बुद्धू, गौखा आदि की पदवियां दी जाती थीं। दिन-भर सारे शहर की चोरी और डाके, हत्या और व्यभिचार, गर्भपात और विश्वासघात की घटनाओं की चर्चा रहती थी। यहां का आदर और प्रेम अब अपने यथार्थ रूप में दिखाई देता था। यह प्रेम नहीं था, आदार नहीं था, केवल कामलिप्सा थी।

अब तक सुमन धैर्य के साथ वे सारी विपत्तियां झेलती थीं। उसने समझ लिया था कि जब इसी नरककुंड में जीवन व्यतीत करना है, तो इन बातों से कहां तक भागूं? नरक में पड़कर नारकीय धर्म का पालन करना अनिवार्य था। पहली बार विट्ठलदास जब उसके पास आए थे, तो उसने मन में उनकी उपेक्षा की थी। उस समय तक उसे यहां के रंग-ढंग का ज्ञान न था। लेकिन आज मुक्ति का द्वार सामने खुला देखकर इस कारागार में उसे क्षण-भर भी ठहरना असह्य हो रहा था। जिस तरह अवसर पाकर मनुष्य की पाप-चेष्टा जाग्रत हो जाती है, उसी प्रकार अवसर पाकर उसकी धर्म-चेष्टा भी जाग्रत हो जाती है।

रात के तीन बजे थे। सुमन अभी तक करवटें बदल रही थी, उसका मन बलात् सदन की ओर खिंचता था। ज्यों-ज्यों प्रभात निकट आता था, उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। वह अपने मन को समझा रही थी। तू इस प्रेम पर फूला हुआ है? क्या तुझे मालूम नहीं कि इसका आधार केवल रंग-रूप है! यह प्रेम नहीं है, प्रेम की लालसा है। यहां कोई सच्चा प्रेम करने नहीं आता। जिस भांति मंदिर में कोई सच्ची उपासना करने नहीं जाता, उसी प्रकार इस मंडी में कोई प्रेम का सौदा करने नहीं जाता, सब लोग केवल मन बहलाने के लिए आते हैं। इस प्रेम के भ्रम में मत पड़।

अरुणोदय के समय सुमन को नींद आ गई।

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